नैया पड़ी मंझधार, गुरु बिन, कैसे लागे पार॥
मैं अपराधी जनम को मन में भरा विकार ।
तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार ।
अवगुन दास कबीर के बहुत गरीबनवाज़ ।
जो मैं पूत, कपूत हूं, तहौं पिता की लाज ॥
गुरु बिन, कैसे लागे पार ॥
साहिब, तुम मत भूलियो, लाख लोग लगि जाँहिं ।
हम से तुमरे बहुत हैं, तुम से हमरे नाहिं ।
अंतरयामी एक तुम, आतम के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ, प्रभुजी, कौन उतारे पार ॥
गुरु बिन, कैसे लागे पार ॥
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